प्रथमपतिगृहानुभवम्
हे सखि पतिगृहगमनं
प्रथमसुखदमपि किंत्वतिक्लिष्टं री।
परितो नूतन वातावरणे
वासम् कार्यविशिष्टं री।।
वदने सति अवरुद्धति कण्ठं
दिवसे अवगुण्ठनमाकण्ठं।
केवलमार्य त्यक्त्वा तत्र
किंञ्चिदपि मया न दृष्टं री।।
वंश पुरातन प्रथानुसरणं
नित्यं मर्यादितमाचरणं।
परिजन सकल भिन्न निर्देश पालने
प्रभवति कष्टं री।।
भर्तुर्पितरौ भगिनी भ्राता
खलु प्रत्येकः क्लेश विधाता।
सहसा प्रियतममुखं विलोक्य तु
सर्वं कष्ट विनिष्टं री।।
अभवत् कठिनं दिवावसानम्
बहु प्रतीक्षितं रजन्यागमनम्।
लज्जया किञ्च कथं कथयानि
विशिष्ट प्रणयपरिशिष्टं री।।
:: नित्यगोपाल कटारे ::
4 comments:
ati sundaram | aashaa karomi yad bhawaann sarale subodhe cha Sansakrite likheShyati |
AnunaadH
संस्कृत में आपका ब्लॉग देख अत्यन्त प्रसन्न्ता का अनुभव हुआ। हमारी पीढ़ी तो पश्चिम और वैश्वीकरण के प्रभाव में संस्कृत को भूल ही चुकी है। ऐसे में आप जैसे लोग प्रशंसनीय हैं।
स्वागत आपका हिन्दी ब्लागजगत में.
अति सुंदर. उस दिन ई गोष्ठि मे आपका यह लोक गीत आपकी आवाज़ मे समा बना गया. अभी पढते वक्त भी आपकी आवाज सुनाई दे रही थी. बहुत बधाई.
समीर लाल
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